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Friday, August 10, 2012

संवाद संग्राम


सलीके से बात करना तुझे
आता है, मुझे भी आता है
फिर क्यों बात-२ में पुनः
अभद्रता पर उतर आता है

शांत रहके भी बातें आगे
बढती हैं, वार्तालाप चलता है
लेकिन कुछ ही देर में पारा
तेरा हद से गुज़र जाता है

इतना सब हो जाने पर कभी,
कहीं प्रत्युत्तर मैं भी दूंगा
संवाद के हवाले सही, दो-चार-
पांच-छः मुक्के मैं भी दूंगा

क्योंकि सिर जब कोई लगे चढ़ने
झटकना ज़रूरी हो जाता है...
पता तुझे भी लगे 'किसका' शीश!
निष्ठुर वाक् से जिसे दबाना चाहता है

ऐसे एक-दो वार ही काफी मेरे
भरपूर तुझे समझाने को
बाद फिर तू कितना भी बके
रहेगा अकेला ही चिल्लाने को

--
विकास प्रताप सिंह 'हितैषी'

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