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Sunday, March 31, 2013

भटकते-भटकते

भटकते-भटकते 
मंज़िलों तक पहुँच गये रस्ते

गुज़रते-गुज़रते 
दिख ही गए सड़क के बच्चे 

सरकते-सरकते 
उड़ गये पतलून के खरपच्चे 

निकलते-निकलते 
सूरज आ गया कब का सर पे

संभलते-संभलते
बिखर गये तूफां में पेड़ों के पत्ते

हँसते-हँसते
देखो घिर आये आँसू पलक पे

चमकते-चमकते
बीता उजाला, निकले अंधेरे सच्चे

बिफरते-बिफरते
हो गई सांझ, कोई अब तो हँस दे

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विकास प्रताप सिंह 'हितैषी'

(20 नवम्बर 2012)

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