आँगन की क्यारियों में
गुठली, बीज दबाने हैं
चखनी है इमली, जामुन
तरु चढ़ तोड़ लाने हैं
पेड़ों से लटकते फलों पे
गुलेलों के निशाने हैं
माली के डंडों से बच
कच्चे आम खाने हैं
ऐसे चटपटे ख्वाबों से अब
मैं भागना नहीं चाहता
ना समझाए कोई मुझे, बावरा
मन जागना नहीं चाहता
प्राकृत हो कर बचपन के
उजाले स्वप्निल चूम आया हूँ
जाग कर फिर अंधेरों की
ख़ाक छानना नहीं चाहता
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विकास प्रताप सिंह 'हितैषी'
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