तारीफ़-ए-मंजिल करें भी तो क्या किसी से हम
हर पड़ाव पे ज़िन्दगी ढलने को बेताब बैठी है|
क़दम उठते ही गिर पड़ते हैं मेरे गश खा कर
एक पग और चलूँ पर, चाहत बेहिसाब रहती है|
संभल हर राह पूरी कर ले जो, रहा अब वो नहीं हूँ मैं
मेरी किस्मत भी है ऐसी, मुझी पर वार करती है|
मन के इक रोग ने ऐसा घेरा हुआ है आजकल
कभी आसां कभी मुश्किल, खुद की हर बात लगती है|
ज़िक्र बेखुदी का करें भी तो क्या किसी से अब
हर लम्हे की आयु सैंकड़ों साल जैसी है|
हर पड़ाव पे ज़िन्दगी ढलने को बेताब बैठी है||
--
विकास प्रताप सिंह 'हितैषी'
--
08/05/2012
हर पड़ाव पे ज़िन्दगी ढलने को बेताब बैठी है|
क़दम उठते ही गिर पड़ते हैं मेरे गश खा कर
एक पग और चलूँ पर, चाहत बेहिसाब रहती है|
संभल हर राह पूरी कर ले जो, रहा अब वो नहीं हूँ मैं
मेरी किस्मत भी है ऐसी, मुझी पर वार करती है|
मन के इक रोग ने ऐसा घेरा हुआ है आजकल
कभी आसां कभी मुश्किल, खुद की हर बात लगती है|
ज़िक्र बेखुदी का करें भी तो क्या किसी से अब
हर लम्हे की आयु सैंकड़ों साल जैसी है|
हर पड़ाव पे ज़िन्दगी ढलने को बेताब बैठी है||
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विकास प्रताप सिंह 'हितैषी'
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08/05/2012
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