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Monday, January 14, 2013

'नीरज' महिमा


आत्मा के सौंदर्य का, शब्द-रूप है काव्य 

मानव होना भाग्य है, कवि होना सौभाग्य 

--
महा-कवि गोपालदास 'नीरज'


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जीवन की अपूर्ण मृगतृषा का सोमरस है काव्य 

जन्म मिलना भाग्य है, 'नीरज' मिलना सौभाग्य 

--
'हितैषी'

Sunday, November 18, 2012

किसी के साये में ज़िंदगी अधूरी गुज़ार दी मैंने

a ghazal written late night (v. early morning) for a dear friend PS who is currently going thro' love-confusion-turmoil in her life.. may she finds peace in her heart soon! ---->
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किसी के साये में ज़िंदगी अधूरी गुज़ार दी मैंने
अपने लबों की हँसी हँसके उसे उधार दी मैंने 

ख्वाबों के आसमां में उड़ता धुएँ का ताजमहल 
गठरी इश्क की हवा पे बेरहम लाद दी मैंने 

उसकी दुनिया बसी रहे उसके ही मुता'ल्लिक
मुनासिब ये सोच जवानी मुंतज़िर ढाल दी मैंने

वो पीता रहा शब-भर होके गम-ए-इश्क में चूर
उसकी आहों के बदले जन्नत तक नकार दी मैंने

नहीं नादां वो, पर रिश्ते को बेजान समझे रखा
अपनी जां भी जबकि चुपके उसपे वार दी मैंने

सरे बाज़ार नीलम न हो जाये मोहब्बत मेरी!
आवाज़ इस वास्ते हौले से, पर, हर बार दी मैंने

वो जान के भी 'अपने प्यार' से बना रहा अनजान
कहाँ घड़ियाँ इकरार की आस में फ़ेंक उतार दी मैंने!

दस्तक न दे वो कभी अब फिर दरवाज़े पे, मौला!
चौखट पे दिल की कुण्डी-सिटकनी मार दी मैंने

--
'हितैषी

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मुता'ल्लिक = संबंधित, according to

मुनासिब = वाजिब, seemingly right, reasonable

मुंतज़िर = इंतज़ार में, in waiting

समंदर-ए-ज़िंदगी में ऐसी भी मौज मिली

आँसू हैं तो रहेंगे भी 
दिल है तो सहेंगे भी 
हम तेरी खातिर आज 
ज़िंदा हैं, कल मरेंगे भी 
--
'हितैषी'
(17 नवम्बर 2012)


Enjoying Life is a necessity.. which has to be taken up as a luxury
--
vps


समंदर-ए-ज़िंदगी में ऐसी भी मौज मिली
आँख खुली तो खड़ी दुश्मन की फ़ौज मिली 
--
'हितैषी'
(17 नवम्बर 2012)

जब ढलक पड़े कुछ अश्क आँखों को अलविदा बोलकर

जब ढलक पड़े कुछ अश्क आँखों को अलविदा बोलकर 
चंद साँसों को ज़िंदा रखा तब उनमें तेरा साया घोलकर 

'कुछ तो बचा रहूँ' ये सोच, तुझे दिल से भुलाने वास्ते 
घर उजड़े अपने आ गया, तेरा रोशन गलियारा छोड़कर 

मैं चल पड़ा अनजान राहों पर, बहुत दूर निकलता गया 
तकदीर ने क्यूँ मिलवाया तुझसे फिर से आवारा मोड़ पर?

सह पाता देख कैसे मैं तेरा हाथ किसी और के हाथों में!
अब तोड़ चला बंधन सारे ज़िंदगी का किनारा तोड़ कर

--
'हितैषी'





(15 नवम्बर 2012)

diwali

आगाह किये रखा दिल को हुस्न की महफ़िल में 
आँखों के रास्ते फिर भी कहीं गिरफ़्तार हो गया 
--
'हितैषी'
(08 नवम्बर 2012)


सोचा था सूरज सम आसमां पे राज करूँगा
पर चाँद से मिला और तारों सा बिखर गया 
--
'हितैषी'
(08 नवम्बर 2012)


चले गये वो किस्सा-ए-तमाशा सुन कर
रोकना खूब चाहा था बेतहाशा जमकर 
दे दिलासा कौन अब हमारे दिल को! 
हम तो रह गये बुत-ए-हताशा बन कर 
--
'हितैषी'
(09 नवम्बर 2012)


नहीं किसी हूर की मुझे आस है 
बस एक कोहिनूर की तलाश है 
--
'हितैषी'
(10 नवम्बर 2012)


इंतज़ार है तो रहेगा भी बरसों तक 
कोई पसंद आके भुलाया नहीं जाता
--
'हितैषी'
(10 नवम्बर 2012)


कलसा उठाये पनघट पे पनिहारी चली जात है 
धूलि धूसर, धूप धधकती, ऊको रोक नाहिं पात है 

बैसे ही चलता जावत मन तत्त्वज्ञान की खोज में 
मोह त्याग, सब छोरि-छाड़ कै, इतरावत मनोज में 

--
'हितैषी'
(11 नवम्बर 2012)


ख़ाक में मिला देना, मौला, वक्त आने पर 
चुस्कियां ज़िंदगी की अभी भरपूर लेने दे ||
--
'हितैषी'
(12 नवम्बर 2012)


अरसा हो गया उस ओर निकले 
आज शाम आओ उधर चलें!
दीवाली है, दोस्तों से मिल लिए
थोड़ा दुश्मनों के भी घर चलें!
--
'हितैषी'
(12 नवम्बर 2012)


पास आना है तो आयें वो 
न नज़र चुरा के जायें वो 
वक्त किसके पास है इतना!
कि किसी को बुलाए कोई 
और सब्र की सीमा भी रोई 
पर रोज़ मुकर जाएँ वो ||
--
'हितैषी'
(14 नवम्बर 2012)


नहीं भाग खड़े होते वो अपने प्राण बचा के 
जां निसार करके हैं वो सरहदों को सजाते 
--
'हितैषी'

#दीवाली #सैनिक #शहीद #वतन
(14 नवम्बर 2012)

Friday, June 29, 2012

वक़्त कमबख्त


लम्हा जो वो चला गया..
पन्ने यादों के छितरा गया
कुछ खोये हुए ख्यालातों की
बूँदें स्वप्निल छिड़का गया...
सब कुछ भुला, फिर याद दिला
वक़्त है कमबख्त, इतरा गया

--
विकास प्रताप सिंह 'हितैषी'
--
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Tuesday, June 26, 2012

बूँदें


दो ही तरह के सावन हैं जवानी में
सुख औ' दुःख ही मौसम हर कहानी में 
कभी अम्बर से टपकती बूँदें हैं 
कभी आँखों से छलकती बूँदें हैं 
--
विकास प्रताप सिंह 'हितैषी' 
--

हवा खामोश है

हवा खामोश है इतनी आज न जाने क्यूँ!
कुछ सुनने को किस्से शायद मेरी ज़ुबानी यूँ 
मेरे अल्फ़ाज़ों को रोशनी तो मिली, बयार चाहिए अब 
इसी बेसब्री में बैठी है शायद हवा रानी हरसूं 
--
विकास प्रताप सिंह 'हितैषी'

हवा

सारा शहर वहाँ उन्माद में झूमता रहा 
जहाँ से गुज़रती रही छू-२ के तुझे हवा  
--
विकास प्रताप सिंह 'हितैषी'

Thursday, June 21, 2012

समझ रहे थे...

समझ रहे थे बैठे हैं जिस शिखर पर मोहब्बत के 
कच्ची शाख निकली, जाने कब चरमरा कर टूट गई!
करना पार चाहा था आयुषी दरिया जिसके दम पर 
बेढंगी कश्ती कब न जाने डगमगा कर डूब गई||
--
विकास प्रताप सिंह 'हितैषी'

तेरी याद दिलाती है

जब भोर अपने आँचल से 
प्रभा छलकाती है 
काया की हर इन्द्रिय 
पुलकित हो जाती है;
मेरी आनंद के आँगन में 
बस एक कमी रह जाती है।
ठंडी पवन तब दिल में
इक सिहरन उठती है
तेरी याद दिलाती है।।

तू जब आती है
बहारों की भीनी खुशबू
चन्दन बिखराती है;
और सांझ ढले कोई कोयल
जब कूक उठाती है
तेरी याद दिलाती है।

निशा की श्यामलता जब
चांदनी में नहाती है
कोई कविता तब दिल से मेरे
होठों पे आती है;
और अधसोई मेरी आँखों में
चेहरा तेरा दिखाती है
तेरी याद दिलाती है।।

--
विकास प्रताप सिंह 'हितैषी' 

दर्द इतने हैं


दर्द इतने हैं कि तुम्हें सुना नहीं पाउँगा 
सारे अपने घाव कभी दिखा नहीं पाउँगा
मैं कोशिश भी करूँ तो भी क्या फायदा!
अधभरे उभर ज़ख्म आयेंगे फिर फिर..
स्वयं को भी पूरी तरह जिला नहीं पाउँगा|
--
विकास प्रताप सिंह 'हितैषी' 

ज़िन्दगी.. मुझे हंसाये जा

मेरी रूह की गहराईयों से
खुशियों के खजाने को
किश्तों में लुटाये जा
ज़िन्दगी.. मुझे हँसाए जा।

बीते पलों के भंवर से निकल
आज अतीत के आंसू ...
मेरी पलकों से उडाये जा
ज़िन्दगी.. मुझे हँसाए जा!

बंद नसीब के अंधेरों में
जो रह गए अधूरे
वो बिखरे ख्वाब सजाए जा
ज़िन्दगी.. मुझे हँसाए जा।

शोर-ग्रसित, थके हैं जो
उन उत्सुक, अधीर कर्णों को
मधुर संगीत सुनाये जा
ज़िन्दगी.. मुझे हँसाए जा।

ज़िम्मेदारी के बोझ से
बेवक्त मुरझाए अधरों पे
मुस्कान फिर खिलाए जा
ज़िन्दगी.. मुझे हँसाए जा।

व्याकुल मेरे मन से
तन्हाइयां मिटा के
बेक़रार बेचैन शामियाने को
खुशनसीबी से सजाए जा
ज़िन्दगी.. मुझे हँसाए जा।

आत्मिक सुख प्राप्ति में
जितने भी प्रश्न-चिह्न हैं, उनके
सम्पूर्ण उत्तर सुझाये जा
ज़िन्दगी.. मुझे हँसाए जा।

घृणा के सांसारिक बाज़ार में 
प्रीत ढूंढती निगाहों को 
किसी आशिक दिल पे टिकाए जा 
ज़िन्दगी.. मुझे हंसाये जा।

जीवन-सफ़र के मध्य में
मित्र मिले या रकीब
तू हर सही इंसान को
सिर-आँखों पे बिठाए जा
ज़िन्दगी.. मुझे हँसाए जा।

युगों से अटल खड़े हैं जो
विश्वसनीयता के पटल हैं वो
उन अचल अमिट राहों पे
क़दमों को बढाए जा
ज़िन्दगी.. मुझे हँसाए जा।

किये किसी से कभी जो हैं
मेरी जुबां पे कायम आज भी हैं
एतबार पर्याय बनाए जा,
उन वादों को निभाये जा
ज़िन्दगी.. मुझे हँसाये जा।

अन्धविश्वास के बंधन में बंधी
अशिक्षा के ज़ंजीर में जकड़ी
सब रस्मों को ठुकराए जा
ज़िन्दगी.. थोडा हँसाए जा।

खुद से दूर, खुदा से अलग
तू भ्रम से न टकराए जा
यूँ खुदी को न भुलाए जा
ज़िन्दगी.. मुझे हँसाए जा।

कृत्रिम की राह में भूली जो
मृदु-सरगम वो फिर गाए जा
कोई गीत गुनगुनाए जा
ज़िन्दगी.. मुझे हँसाए जा।

कटु भाषी सारा संसार 
नहीं साथ पूरा परिवार 
तू प्रेम-विरक्त हर प्राणी को 
लावण्य घूँट पिलाए जा
ज़िन्दगी.. उन्हें हँसाए जा।

उर में बसी
काफिर चिंताओं को हटा
सत्य-पथ पर शपथ-पूर्ण,
निडर चलना सिखाए जा
ज़िन्दगी.. मुझे हँसाए जा।

बचपन में ही हैं छूटे जो
सपने थे अपने, रूठे जो 
जब हवा में उड़ना चाहा था
बारिश ने खूब नहलाया था
वो मंज़र फिर दिखलाए जा
ज़िन्दगी.. मुझे हँसाए जा।

सपनों की कहानी में ही
छूटे हैं अरमान जो मेरे
फसानों-तरानों के फेरे;
कुछ नगमे जो बने ही नहीं
कुछ लफ्ज़ जो निकले ही नहीं ,
यथार्थ के प्याले में
वो किस्से फिर बनाए जा
ज़िन्दगी.. मुझे हँसाए जा।

ग़म के अन्धकार में डूबे
कभी अपने भी कुछ साये थे
अस्थिरता के मानक हैं वो
उन यादों को भुलाए जा
ज़िन्दगी.. अब हँसाए जा।

काल के गर्त में अनसुलझे
कुछ अपने, कुछ पराये हैं
कुछ आमंत्रित, कुछ बिन-बुलाए हैं
उन रिश्तों को सुलझाये जा
ज़िन्दगी.. उन्हें हँसाए जा।

आकांक्षाओं के तले दबे हैं जो
अपूर्ण अशांति के मारों को
संयम-पाठ पढाए जा
ज़िन्दगी.. उन्हें हँसाए जा।

अंतर्मन के द्वंद्व में क़ैद
जो जुदा हुए सच्चाई से
उन विस्मित लोगों के दिल में
विश्वास का आशियाँ बनाए जा
ज़िन्दगी.. उन्हें हँसाए जा।

महत्त्व की दौड़ में भागा जो
समय की गति से हारा जो
उस निराश, हताश मनु-मन को
वक़्त का मरहम लगाए जा
ज़िन्दगी, तू हँसाए जा।

लक्ष्य-प्रेरित जो बढे
मृत्यु-समक्ष जो अड़े
उन वीर जीवन-गाथाओं का
अमृत-पान कराये जा
ज़िन्दगी, तू हँसाए जा।

मलिनता की कीचड में पड़े
दुखों के गागर से भरे
इस मनुष्य-जीवन से
तुच्छता हटाए जा।
हर संगीन माहौल को
आज खुशनुमा बनाए जा।
हर पल यथासंभव
खुशबुएँ बिखराए जा
ज़िन्दगी, बस हँसाए जा।
ज़िन्दगी, बस हँसाए जा।।

--
विकास प्रताप सिंह 'हितैषी'

Wednesday, June 20, 2012

सोच तुझे लिखा है

सोच 'तुझे' लिखा है, 'आसां है' - ये अंजाम ना दे 
इश्क मज़हब है मेरा, नादानी इसे तू नाम ना दे||
--
विकास प्रताप सिंह 'हितैषी'
--

Tuesday, June 19, 2012

उड़ के पास तेरे पहुँच जाऊं

आता होगा हवा का झोंका 
छूके मुझे तेरी छतो पर
शबनम भेजी है मैने तेरी ओर 
एक पंछी के परों पर|

गुदगुदाने, हंसाने तुझे 
पवन मदमस्त हो आती होगी
चहकती तेरे पास में चिड़िया 
गीत मेरा सुनाती होगी|

ज़ाफरानी रंग आसमानों का 
संग तेरे देखना चाहा है
हरकतें मस्तानी तेरी सहेजने 
बुलबुल ने मुझे बुलाया है|

चाह मेरी भी इसी वक़्त 
उड़ के पास तेरे पहुँच जाऊं 
तेरी शोखियाँ, मुख्तसर सही!
मैं सामने से देख पाऊँ ||

--
विकास प्रताप सिंह 'हितैषी'



(18/06/2012)
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लिखते कब!

सोते ही रह जाते तो लिख पाते हम कब!
कुछ मस्तानों की तकदीर ही यही है ||
(13/06/2012)
--
विकास प्रताप सिंह 'हितैषी'
--
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Monday, June 18, 2012

हो उर्वशी तुम


तेरे माथे की बिंदी के दीदार में चहके हैं 
'कब आएगी बहार!' इंतज़ार में बहके हैं 
हो उर्वशी तुम! हम ये कहेंगे, वो करेंगे!
सच! बरसों से इसी किरदार में बैठे हैं 
--
विकास प्रताप सिंह 'हितैषी'
--

Wednesday, June 13, 2012

इंसानी स्वार्थ <--> उर्वी दशा


इंसानी स्वार्थ ने केवल जलाशय नीलम नहीं किये 
हमने यहाँ सैलाबों पे क़ैद-ए-बाँध बनते देखे हैं 
उपवनों की ऋतु.. कब की बीत चुकी उर्वी पर!
सदियों के समृद्ध वन दिनोंदिन वीरान होते देखे हैं 
--
विकास प्रताप सिंह 'हितैषी'
--

Tuesday, June 12, 2012

आनंद-अपरिमित भू-लोक को, नियत, और आलोकित कर जाऊं


आर्यावर्त इतिवृत्त में अनुमोदित, एक स्तम्भ 'हितैषी' बन पाऊँ|


--
विकास प्रताप सिंह 'हितैषी'

सोया ही कौन है!


सोया ही कौन है तेरी फरमाइशों के बाद!
हम यहाँ रात भर जागे-जागे फिरे हैं ||
--
विकास प्रताप सिंह 'हितैषी'