'हितैषी'
:)
Thursday, June 21, 2012
समझ रहे थे...
समझ रहे थे बैठे हैं जिस शिखर पर मोहब्बत के
कच्ची शाख निकली, जाने कब चरमरा कर टूट गई!
करना पार चाहा था आयुषी दरिया जिसके दम पर
बेढंगी कश्ती कब न जाने डगमगा कर डूब गई||
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विकास प्रताप सिंह 'हितैषी'
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