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Saturday, June 9, 2012

मैं कुछ कहता हूँ

मैं कुछ कहता हूँ, तलवारें उठ जाती हैं 
चुप जो रहूँ, ज़रूर सजाएं छूट जाती हैं 
पर नहीं मकसद यहाँ 'सिर्फ' जिंदा रहना मेरा

खुदी से जो लड़ता हूँ, फिजाएं रूठ जाती हैं
समर के समंदर में दिशायें भूल जाती हैं 
हाँ! बीता है जीवन सदा ही शांति रहित मेरा 

कहानियों के नगर में शर्तें धुल जाती हैं 
कविता-रुपी घर में उम्मीदें झूल जाती हैं 
है रोज़ चलाता धडकनें, यही एक व्यापार मेरा
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विकास प्रताप सिंह 'हितैषी'

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12/05/2012

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