पास पड़ा कूड़ेदान
भरते, रिक्त होते
जब दिखता है
तो मन की हलचल
याद आती है
जज्बातों से भरपूर
ख्यालों की टोकरी
हर क्षण में
भरती, खाली होती रहती है
अटपटे सवाल-जवाब
टकराते हैं तब
वजूद से खुद के
कूडादान भरा हो
तो अच्छा नहीं लगता
और खाली हो तो भी
पूर्णतया
अवचेतन रूप में
उसे भरने की तलब
लगी ही रहती है
पल-२ उसी तरह
मनःस्थिति मेरी
घिरी रहती
विचारों के वार से|
घायल रहता है
दिल बावरा
शुद्ध-अशुद्ध के प्रहारों से
यह विचारों का युद्ध
हो तब भी मैं अधूरा
और न हो
तो भी कहाँ मैं पूरा?
बस आदत हो गयी है शायद
इस क़दर जीने की
मन के कूड़ेदान को अब
ज़रूरत है
निरंतर सफाई की
पग-पग पर,
उभरे घावों को सीने की
खूब तेज़ हवा चल जाये
और पलट जाये ये कूडादान
जीवन का मेरे
न रिक्त रहेगा फिर
न भरेगा कभी
रोज़ाना की उथल-पुथल से
आखिर पा ही लेगा
जीवन
तब मुक्ति को|
--
विकास प्रताप सिंह 'हितैषी'
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