नसीहत दे रहे मुझको वो ज़माने में जीने की
मैं चिंगारियों की सेज को आराम लिखता हूँ
कहीं जो हो जायें आते-जाते हुस्न से आँखें चार
गोया उस वक्त शहर में क़त्ल-ए-आम लिखता हूँ
तनहाइयों की गुज़र से यूं हम भी हैं वाकिफ ‘शायर’
फर्क इतना – उसे आगाज़, खुद को अंजाम लिखता हूँ
तेरे जाने का हर पल शोक मनाता रहा था मैं
रुसवाई का खुद पर ही आज इलज़ाम लिखता हूँ
तड़प अब भी है बाक़ी दिल के चोटिल धरातल पर
रूह आवाज़ देती है, ज़ख़्म को इंसान लिखता हूँ
आतंकियों से डर जाओ, वह तुम्हारी गलती है
ऐसा क़र्ज़ का जीना खुशी से हराम लिखता हूँ
तुझे खबर कहाँ तेरे कितने हैं दीवाने यहाँ पर!
खत के अंत में नाम ‘आशिक़ अनजान’ लिखता हूँ
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विकास प्रताप सिंह 'हितैषी'
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