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Saturday, October 20, 2012

प्रबुद्ध चरित्र

हैं जल-जल बुझे यहाँ 
दीप सब भगवान के 
हुए प्रबुद्ध मगर नहीं 
चरित्र हर इंसान के|

धरा अम्बर सा मिलन 
प्रतिस्पर्धा में व्यतीत हुआ 
सम्बन्ध कभी दिखे नहीं 
समृद्ध, इस ब्रह्माण्ड में|

'शलभ' पास आने को
तत्पर सदा ही रहता हो
ज्योति जली कहाँ अभी
ऐसी किसी 'संतान' में|

मिले बन्धु अनेक ज्वलंत
कोई मोड़ पे, अन्य राह में
तलाश जारी उसकी मगर
व्यक्तित्व जो लुभाव दे|

आकृष्ट होता है 'हितैषी'
जो लोभ-लाभ से कम ही
एकाकी खोज में रत हो
कवित्व वो पुकार ले|

विशाल उर आवश्यक निरा
कर्म-योग सिद्धि हेतु
उद्धार हुआ उसी प्राणी का
भद्रता जो उधार ले|

कथन श्रवण हेतु
लोचन पर्यवेक्षण, अनादि
समक्ष तत्त्व सार्थक होते
केवल ज्ञानी सुजान के|

स्वयंभू नहीं महान सदा
सजग 'हितैषी' ने जाना, करे
लोकाचार अनुरूप व्यवहार जनहित
सुबुद्धि को शक्ति मान के|

अंधेर रहता संसार में
प्रदीप्त यदि है सत्य नहीं
स्वतः निज में ढूंढ परम को
'शांति' दूत बन 'कृष्ण-सा', मनुज,
अमन को अमित निर्माण दे||

--
विकास प्रताप सिंह 'हितैषी'


(17/03/2012)

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