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Sunday, November 18, 2012

किसी के साये में ज़िंदगी अधूरी गुज़ार दी मैंने

a ghazal written late night (v. early morning) for a dear friend PS who is currently going thro' love-confusion-turmoil in her life.. may she finds peace in her heart soon! ---->
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किसी के साये में ज़िंदगी अधूरी गुज़ार दी मैंने
अपने लबों की हँसी हँसके उसे उधार दी मैंने 

ख्वाबों के आसमां में उड़ता धुएँ का ताजमहल 
गठरी इश्क की हवा पे बेरहम लाद दी मैंने 

उसकी दुनिया बसी रहे उसके ही मुता'ल्लिक
मुनासिब ये सोच जवानी मुंतज़िर ढाल दी मैंने

वो पीता रहा शब-भर होके गम-ए-इश्क में चूर
उसकी आहों के बदले जन्नत तक नकार दी मैंने

नहीं नादां वो, पर रिश्ते को बेजान समझे रखा
अपनी जां भी जबकि चुपके उसपे वार दी मैंने

सरे बाज़ार नीलम न हो जाये मोहब्बत मेरी!
आवाज़ इस वास्ते हौले से, पर, हर बार दी मैंने

वो जान के भी 'अपने प्यार' से बना रहा अनजान
कहाँ घड़ियाँ इकरार की आस में फ़ेंक उतार दी मैंने!

दस्तक न दे वो कभी अब फिर दरवाज़े पे, मौला!
चौखट पे दिल की कुण्डी-सिटकनी मार दी मैंने

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'हितैषी

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मुता'ल्लिक = संबंधित, according to

मुनासिब = वाजिब, seemingly right, reasonable

मुंतज़िर = इंतज़ार में, in waiting

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